राजस्थान में बढ़ती "साफा बांधने" की होड़, जोधपुरी साफे की दुनिया भर में अलग पहचान

भोपालगढ़ :- 

प्राचीन समय  से ही राजस्थान में "केसरिया साफा" आन ,बान और शान का प्रतीक माना जाता है । लेकिन आजकल राजस्थान में चारों ओर हर जाति में दिनोंदिन विशेषकर मांगलिक अवसरों पर लोगों द्वारा अतिथियों को "साफा बंधाने" की होड़ बड़ी तीव्रता से बढ़ती जा रही है । घर आए मेहमानों का माला एवं साफा द्वारा स्वागत सम्मान करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है । लेकिन वर्तमान में जो साफा बंधाने की परिपाटी चल रही हैं । उसमें "दूसरों की देखा देखी" एवं "दूसरों से होड़ करना" प्रमुख है । जिसमें वह व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक नुकसान उठाते हैं जो समाज में ना विशिष्ट श्रेणी में गिने जाते हैं और न जनप्रतिनिधियों में । कई बार देखा गया है कि अतिथि-सम्मान कार्यक्रम के अवसर पर एक या दो व्यक्ति जो साफा लाने या ले जाने में और पंचायती करने में आगे रहते हैं । वे मुखिया की अनुमति के बिना ही ऐसे व्यक्तियों को बुलाकर साफा बंधवा देते हैं ।

जिनका समाज एवं सरकार में कोई भी पद नहीं होता है । ऐसे में असली सम्मान पाने वाले वे लोग पीछे रह जाते हैं,जिससे उनका अपमान होता है। क्योंकि ऐसे लोगों के दिमाग में साफा बंधवाने की बात नही रहती हैं बल्कि वो यह चाहते हैं कि हमनें हमारे परिचित के यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी है और उनका हमेशा उद्देश्य जनता या समाज हित में निस्वार्थ रूप से सेवा करना होता है । ऐसे लोग अक्सर "साफा बंधाने" वाली रस्म से दूरी ही बनाए रखते हैं । जबकि मांगलिक अवसरों पर जो लोग सम्मानित होने वाले होते हैं । उनमें मुख्य रूप से उस परिवार के मुख्य समधी ,संत महापुरुष ,स्थानीय सरपंच ,प्रधान ,विधायक , मंत्री ,समाज के अध्यक्ष एवं प्रशासनिक अधिकारी प्रमुख होते हैं । जो बड़े कार्यक्रम में अधिकतम 50 एवं छोटे कार्यक्रमों में अधिकतम 20 व्यक्ति तक ही सम्मान पाने वाले होते हैं । लेकिन वर्तमान में हर किसी कार्यक्रम में समाज या राजनीति के वर्तमान या भूतकाल के पदाधिकारी एवं प्रत्येक सरकारी कर्मचारी तथा स्व घोषित समाजसेवियों की संख्या बड़े कार्यक्रम में 500 से 1000 तक एवं छोटे कार्यक्रम में 200 से 500 तक संख्या हो जाती है । जिससे कार्यक्रम के आयोजक को आर्थिक नुकसान के साथ-साथ दर्जनों अतिथियों से नाराजगी तक हो जाती है । क्योंकि इस कार्यक्रम में कई बार ऐसे ऐसे व्यक्तियों को भी साफा बंधवा दिया जाता है । जो ना तो उनके समधी है और न समाज या राजनीति में कोई पदाधिकारी है और ना कोई प्रशासनिक अधिकारी । जबकि उस कार्यक्रम में उस वक्त इनसे उम्र में बड़े एवं सरकारी अधिकारी उपस्थित रहते हैं । जो उस सम्मान से वंचित रह जाते हैं तो उन्हें बेहद दुख व अपमान जैसा महसूस होता है । कई बार सम्मान समारोह के आयोजन में अत्यधिक अतिथियों के सम्मान के चक्कर में कार्यक्रम की महत्वपूर्ण प्रस्तुतियां एवं विशेष अतिथियों के उद्बोधन से वंचित रहना पड़ता है। वहीं मांगलिक अवसरों पर कई बार "साफा प्रेमी" तब तक पांडाल से हटते नहीं जब तक उन्हें साफा नहीं बंधाया जाता है ।आखिर कार्यक्रम के मुखिया को मजबूर होकर उन्हें साफा बंधवा कर बेमन से सम्मान देकर अपना फर्ज पूरा करते हैं तभी उन लोगों में चलने की गति उत्पन्न होती है जो फ़ोटो सहित सोशल मीडिया पर अपलोड होने पर ही विराम लेती है। जब "साफा" सम्मान का प्रतीक है तो सम्मान पाने वालों को भी बिना इंतजार किए ही उन्हें सम्मानित किया जाता है।


आम आदमी द्वारा मांगलिक अवसर पर लाखों रुपए लगाकर सिर्फ "साफा बंधाने" की परंपरा से उन्हें बाद में अपने लोगों द्वारा या रिश्तेदारों द्वारा "अमुक व्यक्ति का सम्मान नहीं करवाने" की बात सुनकर अत्यंत अफसोस होता है ।


इसलिए मेरा 36 कोम के लोगों से करबद्ध निवेदन है कि "साफा बंधाने" की परंपरा को या तो सीमित करें या पूर्ण रुप से बंद करके सिर्फ मुख्य द्वार पर बालिकाओं द्वारा मेहमानों का तिलक एवं मौली बांधकर स्वागत सम्मान करने की प्रक्रिया अपनानी चाहिए । जिसमें ना कोई अत्यधिक खर्चा आता है और ना किसी से कोई नाराजगी उत्पन्न होती है ।